प्रसाददानम्

अथ विश्वेशः सर्वात्मक: | वाग्यज्ञादिह तुष्यतु |

तुष्ट्वेदं मे प्रयच्छतु | प्रसाददानम् ||१||

खलत्वं नश्यतु खलानाम् | सत्कर्मे ते रमन्ताम् |

परस्परसख्यं वर्धताम् | जीवभूते ||२||

तमस्तु नश्यतु दुरितानाम् | स्वधर्मसूर्य: प्रकाशताम् |

वाञ्छानुरूपं लभताम् | प्राणिमात्रम् ||३||

वर्षतु सकलमङ्गलम् | ईश्वरनिष्ठानां मण्डलम् |

समेतु भूमौ अनवरतम् | भूतै: सार्धम् ||४||

चलत्कल्पतरूणां सन्निधि: | तिष्ठति चेतनाचिन्तामणि: |

अर्णवास्तेपि स्वनन्ति | पीयूषस्य ||५||

अलाञ्छिता ये चन्द्रमस: | मार्तण्डा ये तापहीना: |

सदा ते सर्वेषां सन्त: | बान्धवा: सन्तु ||६||

किं बहुना सर्वसुखेन | पूर्णतां यातु त्रिलोकम् |

भजताम् आदिपुरुषम् | अखण्डितम् ||७||

ग्रन्थस्य येsभ्यासका: | लोकेsस्मिन् ते विशेषा: |

दृष्टादृष्टविजयम् | प्राप्नुवन्तु ||८||

तथास्तु दानप्रसाद: | इति विश्वेशराजस्य वच: |

वरेणैतेन ज्ञानदेव: | सुखस्वरूप: ||९||

संस्कृतानुवाद:- राजेन्द्र दातार

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